
उत्तर प्रदेश का जमाना हो या उत्तराखंड बनने का बाद का। लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय दलों की ही धूम रही है। राज्य गठन से पहले जरूर दो आम चुनाव में एक-एक निर्दलीय और एक उपचुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी जीता है लेकिन राज्य गठन के बाद से आज तक किसी निर्दलीय को लोकसभा चुनाव में जीत नसीब नहीं हुई। ये बात अलग है कि विधानसभा चुनावों में निर्दलीयों का बोलबाला रहा है।
राज्य गठन से पहले वर्ष 1951 के आम चुनाव में टिहरी लोकसभा सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी महारानी साहिबा कमलेंदु मति शाह ने बंपर जीत दर्ज की थी। उन्होंने कांग्रेस के कृष्ण सिंह को हराया था। महारानी को इस चुनाव में 50.94 प्रतिशत तो कांग्रेस प्रत्याशी को 40.59 प्रतिशत मत मिले थे। इसके बाद 1967 के आम चुनाव में देहरादून लोकसभा सीट पर निर्दलीय केवाई सिंह ने लगातार तीन बार के सांसद महावीर त्यागी को हराया था। केवाई सिंह को इस चुनाव में 49.83 प्रतिशत जबकि महावीर त्यागी को 36.64 प्रतिशत वोट मिले थे।
गढ़वाल में बहुगुणा का रहा शानदार प्रदर्शन
इसके बाद 1982 के उपचुनाव में कांग्रेस से बगावत करके निर्दलीय हेमवती नंदन बहुगुणा ने गढ़वाल लोकसभा सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशी चंद्र मोहन सिंह नेगी को मात दी थी। कांग्रेस ने चंद्र मोहन सिंह नेगी को बहुगुणा के खिलाफ उतारा। नेगी को इंदिरा के प्रतिनिधि के तौर पर देखा गया। बहुगुणा इस विद्रोह का पहाड़ का एक बड़ा वर्ग कायल था। जब बहुगुणा ने चुनावी सभा की तो इतनी भीड़ जुटी की पांव रखने के लिए जमीन नहीं बची।
बहुगुणा की जमीनी का ताकत का अंदाजा लगाने के लिए इंदिरा गोपनीय ढंग से देहरादून पहुंची थी और उन्होंने परेड ग्राउंड के एक स्थान पर गुप्त रूप से बहुगुणा का भाषण सुना। इंदिरा ने बहुगुणा को उन्हीं की जमीन पर हराने की ठानी थी। उनकी गढ़वाल में एक दर्जन से अधिक सभाएं कीं। इंदिरा ने तत्कालीन गृह मंत्री जैल सिंह तक को उपचुनाव में भेजा। देहरादून के कांग्रेस भवन में उन्होंने कई दिन तक कैंप किया। सारी ताकत और मशीनरी झोंकने के बावजूद कांग्रेस बहुगुणा से चुनाव हार गई। गढ़वाल में बहुगुणा का शानदार प्रदर्शन रहा।