मध्य प्रदेश की एक जेल से: वे गुमनाम बच्चे, जिन्होंने इतिहास रचा

महिला वार्ड का दरवाजा खुल रहा है. 22 चाबियों का गुच्‍छा हाथ में लिए प्रहरी दरवाजा खोलती है. मैं रजिस्‍टर में साइन करती हूं. अंदर जाते ही बाईं तरफ एक बेहद सुंदर, कमसिन सी महिला एक छोटे से बच्‍चे को हाथ में लिए हुए खड़ी है. उसकी गोद में एक बच्चा है. वह करीब 9 महीने का है. यह महिला करीब एक साल पहले जेल में आई थी. पति की हत्‍या के आरोप में. यह कहते हुए उसकी आंखें भर जाती है. वह कहती है कि उसने अपने पति की हत्‍या नहीं की. यह बच्चा उसकी बिखर चुकी शादी की इकलौती सौगात है. बच्‍चे का नाम उसने रखा है सूरज. सूरज आंखें उठाकर मुझे देखता है. उस बच्‍चे को नहीं मालूम कि जहां उसने जन्म लिया और पहली सांसें ली, वह एक जेल है. मां दसवीं पास है. उम्र 20 साल है. पूरी जिंदगी सामने पड़ी है, लेकिन इस समय हकीकत में सब ठहरा हुआ है.

मैं आज उन बच्‍चों से मिलने आई हूं जो तिनका-तिनका मध्य प्रदेश का हिस्‍सा बने थे. मुझे उन्हें अपना आभार व्यक्त करना है. तिनका-तिनका मध्‍यप्रदेश की जब शुरुआत हुई थी, उस समय इस विशेष परियोजना के साथ चार बच्‍चे जुड़े थे. चारों ने इस किताब में रंगे भरे थे. आज जेल में उनमें से एक बच्‍चा मौजूद है. उसके अलावा आठ और बच्‍चे जेल में आ चुके हैं.

मैं जब पहुंचती हूं, उस समय बच्चे क्रेश में हैं. मुझे देखकर वे बेहद खुश होते हैं. दो बच्चे मुझे पहले से जानते हैं. 6 साल का अंशुल (बदला हुआ नाम) आकर मुझसे लिपट जाना चाहता है, लेकिन फिर न जाने कौन-सा डर उसे रोक देता है. वह पास आकर खड़ा हो जाता है. मैं इन सब बच्चों के हाथों में किताब थमा देती हूं. मुस्‍कुराता हुआ अंशुल किताब को देखता है. वो बेहद खुश है. वो अपनी तस्‍वीरों को पहचानाता है. वो उन्हें बार-बार छूकर देखता है. अपने साथियों को बताता है कि कैसे उसने इस किताब के लिए एक घर भी बनाया था.

लेकिन एकाएक वो बाकी तीन बच्‍चों को याद करने लगता है. वह उनके नाम लेता है. मुझसे पूछता है कि वो सब कहां चले गए. कब गए, क्यों गए. वो भावुक है और मैं शब्दहीन.

मैं उसकी मां से मिलना चाहती हूं. मां खुश है कि मैंने वादे के मुताबिक किताब में अंशुल की असली पहचान को छुपा दिया है. यही इकलौता निवेदन उसने मुझसे किया था. उसकी मां किसी के अपहरण के मामले में जेल के अंदर है. पति फरार है. मुलाकात के लिए कभी कोई नहीं आया. करीब सात साल से इस जेल के अंदर है. कब बाहर जाएगी, कोई नहीं जानता. अंशुल अब 6 साल का हो चला है. जेल के नियमों के मुताबिक वो भी उम्र की इस सीमा को लांघने के बाद कहां जाएगा, कौन जाने. इन बच्‍चों की टीचर नीलम है. नीलम की उम्र 35 साल है. वो इन बच्‍चों को रोज पढ़ाती है. वह अपने पति की दूसरी पत्नी थी. एक वारदात में पति का अपहरण हुआ और फिर हत्या. तब से वह यहां है. उसके मायके से तो परिवार मिलने आता है, लेकिन ससुराल ने उसे बिसरा दिया है. पति की पहली शादी से हुई संतानें उसे नापसंद करती हैं. फिल्मी कहानी की तरह असली और सौतेली मां की जो स्थाई छवियां समाज ने गढ़ी थीं, वे समय के साथ वहीं टिकी पड़ी हैं.

मैं बार-बार पूछती हूं कि वो महिला कहां है जो शायरी लिखती है. वो इस समय इग्‍नू की क्‍लास में बैठी है. आज इंग्‍लिश का टेस्‍ट है. टीचर टेस्‍ट ले रहे हैं. सामने करीब करीब 12 महिलाएं बैठी हैं. उनमें से दो उम्रदराज हैं. मैं उससे कहती हूं कि और लिखे और लिखकर मेरे पास भेजे. फिर मुझे याद आता है कि कल ही तो मुझे एक पुलिस महानिदेशक ने टोका था कि जेलों में लिखने का क्‍या फायदा होगा. अब मैं उनको क्‍या कहूं कि भगत सिंह या फिर महात्‍मा गांधी को जेल में लिखने से क्‍या फायदा हुआ था, उसे कोई कभी तोल पाएगा क्या. बहुत से लोग जो जेल गए और लिखते रहे. उन्‍हें क्‍या फायदा हुआ था, यह समझाना बड़ा मुश्किल है. जेल के एकाकीपन में अगर कलम और कागज भी न हो, रंग और कैनवास भी न हों तो फिर जेल में रोशनदान कभी नहीं बनेंगे.

मैं लौटी तो बच्चों की हंसी मेरे साथ चलकर बाहर आ गई. उसे रोकने के लिए कोई कानून बना नहीं और हवा ने कभी रोक लगाई नहीं. जेल से बाहर आई यह नाजुक हंसी मेरे सिरहाने से चिपक गई. काश, कोई ऐसा होता जो जेल के बच्चों की इस किताब को कुछ जेलों तक पहुंचा पाता. काश, कुछ लोगों के पास इतनी नजाकत होती कि वे झांककर देख पाते कि अघोषित अपराधी होना होता क्या है..

(वर्तिका नन्दा देश की स्थापित जेल सुधारक हैं. तिनका-तिनका जेलों के लिए उनकी मुहिम का नाम है. तिनका-तिनका मध्य प्रदेश हाल में प्रकाशित दुनिया की अपनी तरह की पहली काफीटेबल बुक है, जिसमें 12 पुरुष, 2 महिला बंदियों और जेल के 4 बच्चों ने जेल की जिंदगी को रंगों में उतारा

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