समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे नेहरू और आंबेडकर, जाने कब-कब हुई इसके लिए कोशिशें

अंग्रेजों की हुकूमत से आजादी मिलने के बाद से ही यूसीसी यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) की जरूरत महसूस की जाती रही है। आजादी के बाद जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पहले कानून मंत्री बीआर आंबेडकर ने समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश की तो इस प्रयास को संविधान सभा में भारी विरोध का सामना करना पड़ा। आइये जानते हैं यूनिफॉर्म सिविल कोड के लिए देश में कब कब कोशिशें की गई और इनका हस्र क्‍या हुआ…

…तब डॉ. आंबेडकर का हुआ था विरोध

संविधान सभा में जब आंबेडकर ने यूनीफॉर्म कोड अपनाने की बात रखी तो कुछ सदस्यों ने उग्र विरोध किया, लिहाजा मसले को संविधान के अनुच्छेद 44 में नीतिनिर्देशक तत्वों के तहत रख दिया गया। अब जब मुस्लिम महिलाओं के लिए तत्काल तीन तलाक जैसी सामाजिक कुप्रथा को खत्म करने के लिए ‘द मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन मैरिज) एक्ट, 2019’ लागू हो चुका है तो इन महिलाओं को और सशक्त किए जाने को लेकर समान नागरिक संहिता की जरूरत शिद्दत से महसूस की जाने लगी है।

…और डॉ. आंबेडकर को छोड़ना पड़ा था पद

भारी विरोध के कारण जवाहरलाल नेहरू को विवश होकर खुद को हिंदू कोड बिल तक ही सीमित करना पड़ा। नेहरू हिंदू कोड बिल ही लागू करा सके। यह बिल, सिखों, जैनियों और बौद्धों पर लागू होता है। इससे द्विपत्नी और बहुपत्नी प्रथा को समाप्त किया गया। महिलाओं को तलाक और उत्तराधिकार का अधिकार मिला। शादी के लिए जाति को अप्रासंगिक बनाया गया। संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे, लेकिन जब उनकी सरकार यह काम न कर सकी तो उन्होंने पद छोड़ दिया।

अंग्रेजों की व्यवस्था

1772 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने उत्तराधिकार, शादी-विवाह और अन्य धार्मिक मामलों में दिए आदेश में कहा कि मुस्लिमों से संबंधित कुरान के कानून और हिंदुओं के लिए शास्त्र से जुड़े नियम-कानूनों का पालन किया जाए।

मौजूद नियम-कानून

शादी-तलाक को लेकर विभिन्न धर्मों के लोगों के लिए अब तक कई कानून बनाए जा चुके हैं। इनमें प्रमुख हैं…

द कनवट्र्स मैरिज डिसोल्युशन एक्ट, 1866

द इंडियन डिवोर्स एक्ट, 1869

द इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट, 1872

द काजी एक्ट, 1880

द आनंद मैरिज एक्ट, 1909

द इंडियन सक्सेशन एक्ट, 1925

द चाइल्ड मैरिज रेस्ट्रेंट एक्ट, 1929

द पारसी मैरिज एंड डिवोर्स एक्ट, 1936

द डिसोल्युशन ऑफ मुस्लिम मैरिज एक्ट, 1939

द स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954

द हिंदू मैरिज एक्ट, 1955

द फॉरेन मैरिज एक्ट, 1969

द मुस्लिम वीमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डिवोर्स) एक्ट, 1986

स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954

अलग-अलग धर्मों के लोग इसके तहत अपनी शादी को पंजीकृत करवा सकते हैं। इसमें यह भी प्रावधान है कि किसी अन्य रूप में की गई शादी को भी स्पेशल मैरिज एक्ट में पंजीकृत किया जा सकता है (अगर यह इस कानून की जरूरतों को पूरी कर रहा हो)।

निष्प्रभावी हुआ फतवा

1817 में ब्रिटिश जजों ने फतवों की व्यवस्था को निष्प्रभावी कर दिया। एक प्रस्ताव पारित कर फतवों की बाध्यकारी प्रकृति को खत्म किया गया। मुस्लिम पर्सनल लॉ 1937 के शरई कानून के तहत मुस्लिमों के लिए कुछ पर्सनल कानून बनाए गए लेकिन अंग्रेजों ने मुस्लिमों पर इन कानूनों को थोपा नहीं। इसके सेक्शन तीन के अनुसार यह उन्हीं मुस्लिम पर लागू होता था जिन्होंने लिखित में इसके दायरे में आने की बात मानी थी।

संविधान में हैं ये प्रावधान

अनुच्छेद 14 : भारत के सभी नागरिकों को समान अधिकार हैं। इसके तहत जाति, धर्म, समुदाय, नस्ल, लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। सभी को समान अधिकार सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है।

अनुच्छेद 15: किसी के साथ जाति, धर्म, समुदाय, नस्ल और लिंग के आधार पर भेदभाव न हो, राज्य ये सुनिश्चित करेगा। अनुच्छेद 21: जीवन जीना और आजादी से जीना हर व्यक्ति का अधिकार है। यह हर व्यक्ति का मूल अधिकार है। कानून के अलावा इस अधिकार में किसी प्रकार हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।

अनुच्छेद 25: सभी नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने की आजादी है। व्यक्ति को उसके धर्म से जुड़े रीति-रिवाज नियम कानूनों को मानने की आजादी है।

कैसे हो सकते हैं अलग-अलग प्रावधान

आखिर एक देश में एक ही काम के लिए अलग-अलग धर्मों-संप्रदायों के बीच अलग-अलग प्रावधान कैसे हो सकते हैं? विधि आयोग पहले से ही इस पर काम कर रहा है। कई बार सुप्रीम कोर्ट सरकार से इसे लागू करने को लेकर सवाल-जबाव कर चुका है। ऐसे में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के लिए लोगों में जागरुकता के साथ जरूरत है, दृढ़ इच्छाशक्ति की। यह जितना समाज के भीतर से दिखे, उतनी ही सरकार के स्तर पर भी दिखनी चाहिए। तभी सही मायने में तमाम विसंगतियों का अंत होगा और राष्ट्र एक सूत्र में मजबूती से जुड़ेगा।

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