Nirjala Ekadashi 2020 : निर्जला एकादशी के दिन दानपुण्‍य का बताया बहुत महत्‍व

कोरोना महामारी में आयुर्वेद का महत्व पूरे भारत सहित विश्व को समझ आ रहा है। पुरातन संस्कृति में ऋृषियों ने आयुर्वेद को धर्म के साथ जोड़कर मनुष्य के जीवन का अंग बना दिया है। उसी पुरातन संस्कृति का एक अंश है निर्जला एकादशी जिसे कठोर गर्मी के मौसम में बिना महिलाएं और पुरुष पूरे 24 घंटे तक निर्जला व्रत करते हैं।

इससे एक तो मनुष्य का शरीर स्वस्थ्य रहता है, इसके साथ ही उनका मस्तिक भी स्वस्थ्य और मजबूत रहता है। जिससे उसे शारीरिक बीमारियों के साथ मस्तिक संबंधी बीमारियों से भी लड़ने में मदद मिलती है। इसके साथ ही सनातनी संस्कृति में नर सेवा को ही नारायण सेवा माना गया है। इसलिए उपवास के साथ दानपुण्य का सर्वाधिक महत्व दर्शाया गया है। इस दिन लोग शीतल जल, शर्बत, सुराही, फल, पंखा आदि गरीबों और ब्राहम्णों को दान करते हैं। जिससे वह व्यक्ति भी गर्मी में जीवित रह सके जो कि इन सामानों को खरीद नहीं सकता है।

2 जून को निर्जला एकादशी मनाई जाएगी। निर्जला एकादशी को भीमसेनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। निर्जला एकादशी को सबसे पहले भीमसेन ने व्रत रखा था। कोई भी व्रत तभी सफल होता है जब उसे मन, वचन, काया की शुद्घता के साथ किया जाए।

आयुष महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ महेश शर्मा के अनुसार निर्जला व्रत कठोर है, इसे पूर्ण करने के लिए मनुष्य को अपनी इंद्रियों को वश में करना पड़ता है। क्योंकि गर्मियों में बिना पानी के 24 घंटे रहना आसान नहीं होता है। आयुर्वेद में उपवासों का बहुत महत्व है।

आयुर्वेद के अनुसार सभी बीमारियों की जड़ पेट होता है। उपवास वाले दिन मनुष्य की दिनचर्या पूरी तरह से व्यवस्थित रहती है। उपवास वाले दिन पेट में उत्पन्न होने वाली जठार अग्नि अपना कार्य बेहतरीन ढंग से कर पाती है और वह पाचन क्रिया को दुरूस्त करती है। इससे रक्तरस (प्लाजमा)की वृद्घि होती है जो कि मनुष्य को सभी प्रकार की शक्ति प्रदान करती है। इसके साथ ही जब मनुष्य कठोर व्रत करता है तो उसे अपनी समस्त इंद्रियों और सुधाओं (इच्छाओं) को वश में करना पड़ता है। इससे मनुष्य मस्तिक रूप से काफी मजबूत बनता है। यहीं मस्तिक की मजबूती मनुष्य को मानसिक बीमारियों से लड़ने में सक्षम बनाती है।

व्रत और दान के जरिए धर्म करता है समाज को मजबूत

ज्योतिषाचार्य सतीश सोनी के अनुसार नर सेवा ही नारायण सेवा है। निर्जला एकादशी राष्ट्रीय पर्व है, जिसे अलग अलग अचंलों में अलग अलग तरीकों से मनाया जाता है। निर्जला व्रत में दानपुण्य का सबसे अधिक महत्व है। सनातन हिंदू संस्कृति में सर्वप्रथम जलदान, अन्नदान को महत्व दिया गया है। माना जाता है कि निर्जला एकादशी के दिन शीतल जल, फल, पंखा, सुपाच्य भोजन, आदि दान करने से 10 हजार गुना फल मिलता है।

गर्मी के मौसम में जब हम स्वयं व्रत करते हैं तो हमें गरीबों की स्थिति का पता चलता है जिन्हें गर्मी में शीतल जल, भोजन, फल आदि नहीं मिल पाते हैं। ऐसे में जब हम उन्हें शीतल जल, शर्बत सुराही, पंखा, फल आदि दान करते हैं तो इससे समाज मजबूत होता है।

छोटे कामगारों को मिलती है मदद

निर्जला एकादशी पर सुराही, पंखा, फल, सुपाच्य भोजन आदि दान करने की परम्परा है। यह सभी चीजें छोटे-छोटे कामगारों द्वारा तैयार की जाती हैं, जैसे सुराही, घड़ा कुंभकार तैयार करता है। जबकि खजूर व नरियल के पत्तों से बने पंखे गरीब और ग्रामीण महिलाएं तैयार करती हैं। इससे उन लोगों को भी आर्थिक मदद मिलती है जो कि गरीब तबके से हैं।

इनका कहना है

आयुर्वेद में उपवास का बहुत महत्व है। हमारे ऋृषि मुनि वास्तव में वैज्ञानिक, डॉक्टर, और धर्म के ज्ञाता थे। उन्होंने मनुष्य में धर्म को आयुर्वेद के साथ जोड़ दिया । साथ ही ऐसे उपाय निकाले जिससे लोग बिना कोई दवा खाए स्वस्थ्य रह सकें। निर्जला व्रत भी इसी का एक उदाहरण है। इस व्रत से जहां इच्छा शक्ति मजबूत होती है। वहीं शरीर का पाचन तंत्र भी मजबूत होता है।

डॉ. महेश शर्मा प्राचार्य आयुष महाविद्यालय

निर्जला एकादशी पर दान की परम्परा है, इससे समाज में मजबूती आती है। इसलिए धर्म में कहा गया है कि नर सेवा ही नारायण सेवा है। अगर आप गरीबों की मदद करोगे तो अपने आप ही नारायण की सेवा हो जाएगी।

डॉ. सतीश सोनी ज्योतिषाचार्य

45 साल से मैं यह व्रत कर रहीं हूं, कई बार जीवन में परेशानी भी आई लेकिन मैंने इस व्रत को नहीं छोड़ा। साथ ही मुझे देखते हुए मेरी बहुएं भी यह व्रत करती हैं। जरूरतमंदों को दान देने में बहुत खुशी और मन को सुकून मिलता है।

कमला देवी निवासी सिंधी कालोनी

निर्जला व्रत पहले हमारे ग्रामों में बहुत ही उत्साह से मनाया जाता था। महिलाएं बच्चों को शर्बत पिलाती थीं। लेकिन समय के साथ-साथ यह व्रत सामूहिक रूप से मनाए जाने की वजह अब घरों तक ही सीमित रह गया है।

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