2019 में मोदी-शाह के सपनों पर ग्रहण न बन जाए सपा-बसपा का गठबंधन?
कहा जाता है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है. 2019 में विपक्ष खासकर मायावती और अखिलेश यादव जैसे यूपी के दो बड़े क्षत्रप बीजेपी और पीएम नरेंद्र मोदी के लिए इसी रास्ते को बंद करने की कोशिश में हैं. दोनों दल मोदी और अमित शाह के विजय रथ को रोकने के लिए एक साथ आ गए हैं. राज्यसभा चुनावों में बीएसपी उम्मीदवार की हार से भी इनके हौसले पस्त नहीं हुए हैं और बीजेपी के लिए ये चिंता बढ़ाने की बात है क्योंकि अगर माया-अखिलेश का गठबंधन 2019 में बीजेपी के खिलाफ मैदान में उतरा तो 2019 में बीजेपी के लिए सूबे में 2014 जैसे नतीजे दोहराना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो जाएगा.
यूपी तय करता है दिल्ली का रास्ता
जब ये कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है तो उसके पीछे देश का राजनीतिक इतिहास है. यूपी ने अब तक सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री दिए हैं. प्रदेश में 80 लोकसभा सीटें हैं. यानी केंद्र में सरकार बनाने के लिए जितनी सीटें चाहिए उसकी करीब एक तिहाई. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन ने 73 सीटें जीती थीं, तभी उसका मिशन 272 प्लस कामयाब हो पाया था. उन चुनावों में बसपा का खाता भी नहीं खुला था. कांग्रेस रायबरेली और अमेठी तक सीमित हो गई थी. जबकि सपा सिर्फ अपने परिवार की पांच सीटें जीत सकी थी. लेकिन ये नतीजे तब हैं जब सपा, बसपा और कांग्रेस बीजेपी के खिलाफ अलग-अलग मैदान में थे. हाल ही में हुए गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में जब सपा और बसपा साथ आए तो बीजेपी अपनी 2 सीटें हार गई.
दूसरी बार सपा-बसपा का गठबंधन
गोरखपुर और फूलपुर में हुए प्रयोग के नतीजों ने सपा-बसपा को उम्मीद से भर दिया है. पहली बार 1993 में राममंदिर आंदोलन के दौर में बीजेपी की लहर को रोकने के लिए कांशीराम और मुलायम सिंह ने हाथ मिलाया था. इसका असर था कि बीजेपी सूबे की सत्ता में नहीं आ सकी थी. अब दोबारा 25 साल बाद फिर सपा-बसपा गठबंधन को तैयार हैं. इस बार निशाने पर राज्य की नहीं बल्कि केंद्र की मोदी सरकार है.
सपा-बसपा का मूलवोट 52 फीसदी