होलिका दहन से लेकर गंगा मेला तक होली का निरंतर सफर कानपुर में सात दिन तक चलता है

होलिका दहन से लेकर गंगा मेला तक होली का निरंतर सफर कानपुर में सात दिन तक चलता है। सप्ताह भर की इस होली से हटिया बाजार में होरियारों की गिरफ्तारी और आंदोलन के बाद उन्हें छोडऩे की जीत की कहनी जुड़ी है लेकिन यह परंपरा उससे पहले से मौजूद थी। इसके विषय में ज्यादा लोग नहीं जानते हैं, हालांकि शहर में गंगा मेला पर होली खेलने की सन् 1942 की कहानी अधिक चर्चित है लेकिन यह परंपरा काफी पुरानी है।

होली के दिन की अंग्रेजों ने की गिरफ्तारी

आजादी से पहले हटिया, शहर का हृदय हुआ करता था, यहां पर लोहा, कपड़ा और गल्ले का व्यापार होता था। व्यापारियों के यहां आजादी के दीवाने और क्रांतिकारी डेरा जमाते और आंदोलन की रणनीति बनाते थे। गुलाब चंद सेठ हटिया के बड़े व्यापारी हुआ करते थे, जो होली पर बड़ा आयोजन करते थे। एक बार होली के दिन अंग्रेज अधिकारी घोड़े पर सवार होकर आए और होली बंद करने को कहा तो गुलाब चंद सेठ ने साफ मना कर दिया। अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी का विरोध करने पर जागेश्वर त्रिवेदी, पं. मुंशीराम शर्मा सोम, रघुबर दयाल, बालकृष्ण शर्मा नवीन, श्यामलाल गुप्त पार्षद, बुद्धूलाल मेहरोत्रा और हामिद खां को भी हुकूमत के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार करने के बाद सरसैया घाट स्थित जिला कारागार में बंद कर दिया।

शहरवासी भड़क उठे और शुरू हुआ आंदोलन

इन सभी की गिरफ्तारी की खबर जब हुई तो पूरा शहर भड़क उठा और आंदोलन छेड़ दिया, इसमें स्वतंत्रता सेनानी भी जुड़ गए। आठ दिन विरोध के बाद अंग्रेज अधिकारी घबरा गए और उन्हें गिरफ्तार लोगों को छोडऩा पड़ा। यह रिहाई अनुराधा नक्षत्र के दिन हुई। होली के बाद अनुराधा नक्षत्र का दिन उत्सव का दिवस हो गया। जेल के बाहर भरी संख्या में लोगों ने एकत्र होकर खुशी मनाई और हटिया से रंग भरा ठेला निकाला गया और जमकर रंग खेला। शाम को गंगा किनारे सरसैया घाट पर मेला लगा। तब से कानपुर शहर इस परंपरा का निर्वाह कर रहा है। आज भी सरसैया घाट पर शाम को मेला लगता है।

वर्षों पुरानी है परंपरा

भले ही लोगों में आंदोलन की कहनी अधिक चर्चित हो गई हो लेकिन परंपरा पहले भी मौजूद थी। जब कानपुर नहीं था तब यह क्षेत्र जाजमऊ में परगना में आता था, तब रंग पंचमी तक होली मनाए जाने का जिक्र एतिहासिक किताबों में मिलता है। यहां की मुख्य होली तो रंग पंचमी को होती थी। कानपुर के इतिहास पर कई किताबें लिखने वाले मनोज कपूर की मानें तो रंग पंचमी पर होली मनाने की परंपरा बहुत पुरानी की है और करीब सौ साल पुरानी है, जो दस्तावेज बयां करते हैं। वह कहते हैं कि कानपुर में कई दिनों की होली मनाने का सिलसिला 1942 से भी पहले का है। कानपुर पर लिखी गई इतिहास की पहली किताब मानी जाने वाली दरगारी लाल की 1870 में लिखी किताब तवारीख-ए-कानपुर में सात दिन की होली का जिक्र है। विद्वान व लेखक सद्गुरु शरण अवस्थी की किताब मार्ग के पद चिह्न में भी होली की अवधि का जिक्र है।

क्यों पड़ी परंपरा

इतिहास के जानकार मनोज कूपर कहते हैं कि कानपुर शहर शुरू से कामगारों का शहर रहा है, यहां दूर दराज क्षेत्रों से यहां आकर लोग व्यपारियों के पास काम करते थे। उस समय सातों दिन बाजार खुलता था और कार्मिकों को कोई छुट्टी नहीं मिलती थी। ऐसा माना जाता है कि होली के समय खेतों में फसल तैयार होने पर कार्मिकों को अपने घर जाना होता था। इसलिए व्यापारियों में तय हुआ छह दिन या सात दिन का अवकाश दिया जाए, इसपर अनुराधा नक्षत्र को आधार मान लिया गया। अब यह पांच दिन का या फिर छह या सात दिन। इसी आधार पर होली के दिन से आगे के दिनों तक बाजारों में होली का ही माहौल बना रहता था।

इतनी लंबी होली का सिलसिला खत्म करने के लिए कई बार प्रयास भी हुए लेकिन सफल नहीं हुए। पं. गणेश शंकर विद्यार्थी ने भी हटिया बाजार के व्यापारियों से एक दिन की होली मनाने को कहा था। लेकिन व्यापारियों ने यह कहते हुए उनसे मना कर दिया था कि हम आपकी सभी बात मानते हैं लेकिन यह नहीं मानेंगे। इसी तरह साठ के दशक में भी तत्कालीन डीएम ने व्यापारियों को एक दिन की होली मनाने के लिए मनाया। उस दिन सभी एक साथ होली मनाई और मिठाई खाई। लेकिन अगले दिन फिर होली शुरू हो गई तो प्रशासनिक अमले ने भी अपने हाथ पीछे खींच लिये थे।

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