बेपरवाह औऱ लापरवाह डॉक्टर के ठेंगे पर न्यायालय के आदेश

लखनऊ: निजी स्वास्थ्य महकमा मरीजों को बेहतर चिकित्सकीय सेवाएं दिलाने के बजाय तानाशाही रवैये के चलते अधिक प्रसिद्धी पाए हुए है। समय-समय पर निजी अस्पतालों में स्वास्थ्य से जुड़ी अशोभनीय हरकतें भी जनता औऱ प्रशासन के सामने आती रहती हैं।

स्वास्थ्य विभाग के अफसर, डॉक्टर और कर्मचारियों की मिलीभगत के चलते लखनऊ में प्राइवेट हेल्थ सेक्टर की मनमानी को रोक पाना ठेरी खीर साबित हो रहा है। इसी क्रम में लखनऊ के बालागंज क्षेत्र में फ़राह किदवाई का बच्चा घर मे खेलते हुए गिर गया, जिससे उसके चेहरे पर गम्भीर घाव हो गया और रक्तस्राव रुकने का नाम नही ले रहा था, अपने बच्चे को लेकर फ़राह किदवाई निकट के निजी नर्सिंग होम ‘ नोवा हॉस्पिटल एन्ड ट्रामा सेंटर” बालागंज पहुँची, जहाँ अस्पताल स्टाफ ने इलाज से पूर्व मोटी रकम को कैश काउंटर पर जमा कराने का आदेश जारी किया, बच्चे की माँ ने कहा वह जल्दी में अपने घायल बच्चे को लेकर आयी हैं, हड़बड़ाहट में केवल पांच सौ रुपये लेकर आयी हैं, डाक्टर मेरे बच्चे का इलाज शुरू करें मै रुपये का इंतज़ाम कर दूंगी परन्तु अस्पताल प्रशासन ने अभद्रता औऱ अर्नगल आरोप लगाते हुए पुलिस बुलाने की धमकी देते रहे, काफी मिन्नत के बाद भी इलाज शुरू नही किया गया और अस्पताल से चले जाने को बोलते हुए यह भी धमकाने का प्रयास किया कि जिसको चाहो बुलाओ लो, अब इस बच्चे का इलाज इस अस्पताल में किसी कीमत पर नही किया जाएगा।

आम जनता को बेहतर चिकित्सकीय सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए सीएम-डीएम और सीएमओ के आदेश भी इन निजी अस्पतालों में कारगर साबित नही हो पा रहे है। “सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में जब से मरीज-डॉक्टर संबंध को उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में रख दिया है, तब से इस तरह की शिकायतें औऱ बढ़ रही हैं. वही “पिछले कई साल में इस तरह के मामलों की संख्या दोगुनी होती जा रही है, अधिकतर शिकायतें ज्यादा पैसा वसूलने, दुव्र्यवहार करने, गैरजरूरी ऑपरेशन, फर्जी डॉक्टर और गंभीर नतीजों वाले गलत फैसलों से संबंधित होती हैं.” उनके अनुसार, हालांकि दोषी डॉक्टरों के खिलाफ चेतावनी और अस्थायी निलंबन जारी किए जाते हैं, लेकिन उनका रजिस्ट्रेशन बमुश्किल ही खारिज किया जाता है.

हालांकि मेडिकल से जुड़े कानूनी मामलों में एक समस्या ‘लापरवाही’ शब्द से भी पैदा होती है. सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल के वकील एम.एन. कृष्णामणि कहते हैं, “किसी डॉक्टर और अस्पताल का अपनी जिम्मेदारी को पूरा न करना एक सिविल अपराध है, जिसे कानून में ‘टॉर्ट’ (क्षति) कहा जाता है. इस तरह के अपराध में अदालत क्षतिपूर्ति का आदेश देती है.”

सुप्रीम कोर्ट ने 1969 में कहा था कि मरीज के प्रति डॉक्टर के कुछ कर्तव्य हैं, जो केस को हाथ में लेने, उसके इलाज और इलाज की व्यवस्था के फैसले से संबंधित हैं. सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि मरीज एक उपभोक्ता की तरह है और डॉक्टर उसे अपनी ‘सेवा’ देता है और ‘सेवा में कोताही’ के लिए उसके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है.

देखना होगा कि मरीज़ों को सेवा देने की नियत से खुलने वाले निजी अस्पताल में डाक्टर औऱ स्टाफ़ द्वारा की जा रही बेपरवाह, लापरवाही का खमियाजा मरीज औऱ तीमारदारों को ही भुगताना होगा या अभद्रता करने वाले निजी अस्पताल प्रशासन और उपस्थिति स्टाफ़ पर जिला प्रशासन केवल खानापूर्ति कर इतिश्री करने में न्यायालय औऱ प्रदेश सरकार के आदेशो को दर किनार करता रहेगा।

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