यहां मुहर्रम के दौरान सिंदूर नहीं लगाती हैं सुहागिनें

यूं तो जाति व मजहब के नाम पर लोग बंटते रहे हैं। कई जगहों पर इसे लेकर सांप्रदायिक तनाव से लेकर खूनखराबा तक होता रहा है, लेकिन बिरनी प्रखंड का नवादा व पूरनानगर गांव इसका अपवाद है, क्योंकि हिंदुओं के इन गांवों में लोग अंग्रेजों के जमाने से मुहर्रम मनाते आ रहे हैं। सबसे अचरज का विषय यह है कि जिस सिंदूर को हिंदू महिलाएं सुहाग का प्रतीक मानती हैं, मुहर्रम के दौरान वे उस सिंदूर को भी नहीं लगातीं।यूं तो जाति व मजहब के नाम पर लोग बंटते रहे हैं। कई जगहों पर इसे लेकर सांप्रदायिक तनाव से लेकर खूनखराबा तक होता रहा है, लेकिन बिरनी प्रखंड का नवादा व पूरनानगर गांव इसका अपवाद है, क्योंकि हिंदुओं के इन गांवों में लोग अंग्रेजों के जमाने से मुहर्रम मनाते आ रहे हैं। सबसे अचरज का विषय यह है कि जिस सिंदूर को हिंदू महिलाएं सुहाग का प्रतीक मानती हैं, मुहर्रम के दौरान वे उस सिंदूर को भी नहीं लगातीं।  दोनों गांवों में मुस्लिम धर्म को मानने वाला एक भी परिवार नहीं: इन गांवों में मुस्लिम समुदाय का एक भी परिवार नहीं रहता है, फिर भी वहां इन दिनों मुहर्रम मनाया जा रहा है। पूरनानगर व नवादा निवासी टिकैत दशरथ सिंह, मंटू सिंह, जितेंद्र सिंह, दामोदर यादव, रघुनंदन यादव, राजेश यादव, विनोद यादव आदि ने बताया कि कई पीढ़ियों से यहां पर हिंदू परिवार मुहर्रम मना रहे हैं। यहां के लोग हर साल मुहर्रम का ताजिया निकालते हैं। एक बार मुहर्रम के समय नवादा गांव में हैजा की बीमारी फैली थी। किसी को सपना आया था कि इस गांव में ताजिया लगेगा तो हैजा का प्रकोप खत्म हो जाएगा। उसी वक्त गांव के लोगों ने ताजिया लगाना शुरू कर दिया। यह परंपरा उसी समय से यहां चली आ रही है और लोग मुहर्रम मना रहे हैं। बताते हैं कि महिलाएं मुहर्रम का त्योहार खत्म होने पर तीजा के बाद ही सिंदूर लगाना शुरू करती हैं।   आइआइटी-आइएसएम में पीएचडी कर रहे छात्र ने की खुदकुशी यह भी पढ़ें अगर हिंदुओं का कोई त्योहार रहा तो भी मुहर्रम को मिलती है प्राथमिकता: बताया जाता है कि इन गांवों में हिंदुओं के पर्व के दौरान मुहर्रम आ जाता है तो हिंदू अपने पर्व को छोड़कर मुहर्रम मनाते हैं। रोजगार के लिए दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों में रह रहे लोग भी मुहर्रम के समय ताजिया उठाने के लिए अपने घर आ जाते हैं। लोगों का कहना है कि इमामबाड़े के पास मांगी जाने वाली मन्नत पूरी होती है। इस गांव के हिंदू ही देवबंदी बनते हैं। पूरना नगर के टिकैत दशरथ सिंह का कहना है कि उनके घर के आंगन में इमामबाड़ा है। मुहर्रम शुरू होते ही नेक नियम से रहते हैं। प्राचीनकाल से यहां ताजिया लगता आ रहा है। इस ताजिया से ही सभी ताजिया का मिलन होता है। यहां से मिलान नहीं होता है तो किसी तरह की अनहोनी हो जाती है। मुहर्रम शुरू होते ही यहां पर डंका बजना शुरू हो जाता है।

दोनों गांवों में मुस्लिम धर्म को मानने वाला एक भी परिवार नहीं: इन गांवों में मुस्लिम समुदाय का एक भी परिवार नहीं रहता है, फिर भी वहां इन दिनों मुहर्रम मनाया जा रहा है। पूरनानगर व नवादा निवासी टिकैत दशरथ सिंह, मंटू सिंह, जितेंद्र सिंह, दामोदर यादव, रघुनंदन यादव, राजेश यादव, विनोद यादव आदि ने बताया कि कई पीढ़ियों से यहां पर हिंदू परिवार मुहर्रम मना रहे हैं। यहां के लोग हर साल मुहर्रम का ताजिया निकालते हैं। एक बार मुहर्रम के समय नवादा गांव में हैजा की बीमारी फैली थी। किसी को सपना आया था कि इस गांव में ताजिया लगेगा तो हैजा का प्रकोप खत्म हो जाएगा। उसी वक्त गांव के लोगों ने ताजिया लगाना शुरू कर दिया। यह परंपरा उसी समय से यहां चली आ रही है और लोग मुहर्रम मना रहे हैं। बताते हैं कि महिलाएं मुहर्रम का त्योहार खत्म होने पर तीजा के बाद ही सिंदूर लगाना शुरू करती हैं।

अगर हिंदुओं का कोई त्योहार रहा तो भी मुहर्रम को मिलती है प्राथमिकता: बताया जाता है कि इन गांवों में हिंदुओं के पर्व के दौरान मुहर्रम आ जाता है तो हिंदू अपने पर्व को छोड़कर मुहर्रम मनाते हैं। रोजगार के लिए दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों में रह रहे लोग भी मुहर्रम के समय ताजिया उठाने के लिए अपने घर आ जाते हैं। लोगों का कहना है कि इमामबाड़े के पास मांगी जाने वाली मन्नत पूरी होती है। इस गांव के हिंदू ही देवबंदी बनते हैं। पूरना नगर के टिकैत दशरथ सिंह का कहना है कि उनके घर के आंगन में इमामबाड़ा है। मुहर्रम शुरू होते ही नेक नियम से रहते हैं। प्राचीनकाल से यहां ताजिया लगता आ रहा है। इस ताजिया से ही सभी ताजिया का मिलन होता है। यहां से मिलान नहीं होता है तो किसी तरह की अनहोनी हो जाती है। मुहर्रम शुरू होते ही यहां पर डंका बजना शुरू हो जाता है।

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